गर्भावस्था के दौरान आबोहवा में प्रदूषण और पति के धूम्रपान करने के कारण भी बच्चे को यह बीमारी हो सकती है.

उनका मानना है कि शहरों में तो इस बीमारी से निपटने की दिशा में कई प्रयास हो रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय और जमीनी कार्यकर्ताओं को इससे जोड़ा जाना चाहिए, ताकि इससे निपटने की राहें आसान हो सकें.
‘एक्शन फार आटिज्म’ की डा. निधि सिंघल ने बताया, कई बडे वैज्ञानिक, चित्रकार और अभिनेता अपने बचपन में आटिज्म से पीड़ित रहे हैं. यदि हम जागरूकता फैला पाये तो आटिज्म से बच्चे को उबारने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है.

उन्होंने कहा, देश में सीखने वालों और सिखाने वालों का अभाव है. यदि हम आंगनबाडी कार्यकर्ताओं, एनएनएम, सर्वशिक्षा अभियान से जुडे लोगों और शिक्षकों को अच्छी जानकारी दें तो ग्रामीण स्तर तक आटिज्म के बारे में जागरूकता फैला सकेंगे. उन्होंने बताया कि हाल में आये मानसिक स्वास्थ्य विधेयक में आटिज्म को मंदबुद्धि (इंटलेक्चुअल डिसएबेलि) की श्रेणी में डाल दिया गया है, जबकि एक अलग तरह का विकार है. ऐसा ऐसे वक्त में किया गया जब पूरी दुनिया इससे लड़ने की तैयारी कर रही हैं. ऑटिज्म के बारे में सरकार को अपने आंकडों की सही तरह से जांच करनी चाहिए.
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एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में डेढ़ करोड बच्चे ऑटिज्म से पीडि़त हैं और वर्तमान में साठ में से एक बच्चा इस बीमारी से ग्रस्त है. इसको ‘ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसआर्डर’ कहा जाता है. इसके तीन स्तर होते है.
आसान है थैरेपी
‘आटिज्म सेंटर फार एक्सीलेंस’ की निदेशक डा अर्चना नायर ने कहा कि शिक्षक और अभिभावक मिलकर आटिज्म से बच्चे को उबार सकते हैं. इसकी थैरेपी बहुत आसान है जिसको माता पिता भी सीख सकते हैं. हालांकि यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता, लेकिन उचित मार्गदर्शन और सहयोग से इसके शिकार व्यक्ति के जीवन को पटरी पर लाने में मदद की जाती है. सहयोग की जरूरत
उन्होंने कहा कि महंगे इलाज और विशेष शिक्षा होने के कारण यदि सरकार इससे लड़ने में सहयोग करे तो राह आसान हो सकती है. ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता अभाव में मर्ज का सही पता नहीं लग पाता, इसलिए आंगनबाडी कार्यकर्ताओं और शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए. गर्भावस्था के दौरान आबोहवा में प्रदूषण और पति के धूम्रपान करने के कारण भी बच्चे को यह बीमारी हो सकती है.
डॉक्टर के पास जाना जरूरी
उन्होंने बताया कि जब वह मुंबई के एक अस्पताल में कार्यरत थे, वहां ग्रामीण आटिज्म पीड़ित बच्चों को लेकर आते थे. दिल्ली में ऐसा नहीं देखा. कई दफा लोग अनजाने भय के कारण बच्चे को डाक्टर या विशेष स्कूलों के पास नहीं लाते जो बच्चे के लिए बेहद नुकसानदेह है. लोग अगर खुलकर ऑटिज्म पर बात करेंगे तो इसके प्रति जागरूकता आयेगी और बीमारी का सामना बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
इनपुट भाषा
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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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