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नहीं था एक फेफड़ा और दिल में था बड़ा छेद, फिर भी डॉक्टरों ने बचाई नन्हें बच्चे की जान...

डॉ. मुथु जोथी ने कहा, "जब हमने पहली बार मरीज को देखा तो हम जानते थे कि उसकी सर्जरी में बहुत जोखिम है, फिर भी हमने सर्जरी का फैसला लिया, क्योंकि सर्जरी किए बिना बच्चे का जिंदा रहना मुश्किल था.

नहीं था एक फेफड़ा और दिल में था बड़ा छेद, फिर भी डॉक्टरों ने बचाई नन्हें बच्चे की जान...

अपोलो अस्पताल के चिकित्सकों ने तंजानिया से आए एक साल के बच्चे फैव्रियनस की बेहद मुश्किल सर्जरी कर उसे नया जीवन दिया है. बच्चा दिल की एक दुर्लभ बीमारी हेमीट्रंकस से पीड़ित था. बच्चे का दायां फेफड़ा नहीं था और इस मुश्किल सर्जरी में छह-सात घंटे लगे. इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल के डॉक्टरों की टीम में सीनियर कंसलटेन्ट-पीडिएट्रिक कार्डियोथोरेसिक सर्जन डॉ. मुथु जोथी, सीनियर कंसलटेन्ट, कार्डियोलोजी डॉ. ए.के. गंजू, कंसलटेन्ट, पीडिएट्रिक कार्डियक एनेस्थेटिस्ट डॉ. दीपा सरकार शामिल थे.

डॉ. मुथु जोथी ने कहा, "जब हमने पहली बार मरीज को देखा तो हम जानते थे कि उसकी सर्जरी में बहुत जोखिम है, फिर भी हमने सर्जरी का फैसला लिया, क्योंकि सर्जरी किए बिना बच्चे का जिंदा रहना मुश्किल था. आमतौर पर दिल में चार चैम्बर और चार वॉल्व होते हैं, खून की एक वाहिका शरीर तक खून ले जाती है, जबकि दूसरी वाहिका फेफड़ों तक खून पहुंचाती है." 
 

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उन्होंने कहा, "इस मामले में बच्चे का दायां फेफड़ा (लंग) नहीं था और कोई भी वाहिका दाएं फेफड़े तक नहीं जा रही थी. उसमें सिर्फ बायां फेफड़ा था और बाई पल्मोनरी आर्टरी आयोर्टा से निकल रही थी. चिकित्सा की भाषा में इसे हेमीट्रंकस कहा जाता है. मरीज के दिल में बड़ा छेद भी था. आमतौर पर ऑक्सीजन का सैचुरेशन 95-100 होता है, लेकिन बच्चे की छाती में संक्रमण के चलते सैचुरेशन सिर्फ 35 पर आ गया था."

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डॉ. जोथी ने कहा, "इस बीमारी के इलाज के लिए हमें सबसे पहले दिल का छेद बंद करना था. हमने आयोर्टा से आ रही बाएं फेफड़े की रक्त वाहिका को अलग किया और इस वाहिका एवं दिल के दाएं हिस्से के बीच एक ट्यूब ग्राफ्ट की. ट्यूब को गाय की वेन्स (शिरा) 'कॉन्टेग्रा' से बनाया गया था. इस वेन (शिरा) में भी वॉल्व होते हैं, जिनका इस्तेमाल हमने दाएं दिल और फेफड़े के बीच में किया. अब 'कॉन्टेग्रा' बाएं फेफड़े तक खून पहुंचा रही है. क्योंकि मरीज में एक ही फेफड़ा था, इसलिए उसे ठीक होने में ज्यादा समय लगा. पहले उसे वेंटीलेटर से हटा लिया गया था, लेकिन बाद में सांस की परेशानी को देखते हुए 10-12 दिन फिर से वेंटीलेटर पर रखना पड़ा. अब वह ठीक है और अपने देश लौट रहा है."
 

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मरीज की मां दतिवा ने कहा, "मेरा बच्चा बहुत बीमार रहता था. जब वह सिर्फ दो सप्ताह का था तभी से उसे बहुत खांसी होती थी और खूब पसीना आता था. हमने पहले तंजानिया में डॉक्टरों को दिखाया, लेकिन उसे आराम नहीं मिला. समय बीतने के साथ उसके नाखून और जीभ नीली पड़ने लगी. हम समझ गए कि उसे कुछ गंभीर बीमारी है और हमने इलाज के लिए भारत आने का फैसला लिया. हम अपोलो हॉस्पिटल्स के डॉक्टरों के प्रति आभारी हैं, जो बच्चे की सर्जरी के लिए तैयार हो गए."

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